जाओ जहाँ जाना है, अब तुम्हारी जरूरत नहीं
ये शब्द पारे सा पिघला गए उसके अंतर्मन को
यह घर जो घरोंदा था उसके बनाए ख्वाबों का
बनाया था जिसे अपने परिश्रम और त्याग से
यह घर, बच्चे, पति यहीं तो जिंदगी थे उसकी
इनके इर्द गिर्द ही तो बुना था ताना बाना उसने
सींचा था जिसे उसने स्नेह और अपनी निष्ठा से
आज एक ही पल में कैसे हो गया सब बेगाना
शायद सम्बन्ध सभी जरुरत की बलि चढ़ गए
जरुरत ख़त्म होते ही गिरा दिया नज़रो से अपनी
और सवाल करने का हक आज भी नहीं दिया
हक - वो तो बहुत पहले ही छीन चुका था उससे
जब कुंती ने कर्ण को लोकलाज कि खातिर त्यागा
सीता ने दी अग्नि परीक्षा और धरती में समाई वो
जयकार आई राम के हिस्से में, तब भी रही अनजान वो
उर्मिला बन लक्ष्मण की, विरह वेदना का दंश सहा उसने
द्रोपदी बन चोसर की बिसात पर नग्न हुई थी वो
अब तक तो अभ्यस्त हो जाना चाहिए था उसे
सवाल करने की तड़प से क्यों आज है व्यथित वो
जरुरत तक ही सीमित है अस्तित्व उसका
बात ये अब तक क्यों समझ ना पाई वो..
Wednesday, February 8, 2012
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